
कुशलता क्या ऐसे राहगीर की, जिसकी राहों में शूल न हो।
संगत भी क्या ऐसे गुरु की, जिसके अपने उसूल न हो।
कठिन राह पर चलना आम नही,
इसलिए बिरला कोई चले।
मिटकर कोई चल सके प्रेम में,
भूलकर भी भूल न हो।
कुशलता क्या ऐसे राहगीर की, जिसकी राहों में शूल न हो।
संगत भी क्या ऐसे गुरु की, जिसके अपने उसूल न हो।
संगत हो तो गुरु “पूर्ण” की,
जिनकी महिमा अपार है।
बातें करते मूल जगत की,
रहते मन जगत के पार हैं।
कुशलता क्या ऐसे राहगीर की, जिसकी राहों में शूल न हो।
साथ गुरु के ऐसे चलना,
जैसे मरने को तैयार हो।
संगत गुरु की ऐसी करना,
जिसके पास तलवार हो।
कुशलता क्या ऐसे राहगीर की, जिसकी राहों में शूल न हो।
संगत भी क्या ऐसे गुरु की, जिसके अपने उसूल न हो।
कह गये संत ओशो जी,
जीवित गुरु को मत छोड़ना।
बंधन छूटे चाहे जग रूठे,
हो सके चाहे घर छोड़ना।
कुशलता क्या ऐसे राहगीर की, जिसकी राहों में शूल न हो।
मेरे कानों में गूँजती रहती है।
न चेहरा देखा कभी,
उसकी साँस मुझमें बहती है।
कोई आया है उस पार से,
करने आजाद मज़लूम मुसाफिरों को।
साथ अपने उड़ा ले जायेगा,
मन के जाल में फंसे काफ़िरों को।
कुशलता क्या ऐसे राहगीर की, जिसकी राहों में शूल न हो।
संगत भी क्या ऐसे गुरु की, जिसके अपने उसूल न हो।
– गुरु पूर्ण विस्तार के एक शिष्य द्वारा रचित
गुरु पूर्ण विस्तार के सत्संग में आने के पश्चात् बहुत से शिष्यों के अंदर असाधारण अभूतपूर्व रूप से कविताएं प्रकट करने की क्षमता पैदा हो रही है |
ये हम सब के लिए अचरज का विषय है |
क्योंकि इन लोगों ने कभी कविता न की थी और न कवि कवियत्रि होने का कोई निर्णय ही लिया था |
खुद गुरु पूर्ण भी इससे हैरान हैं |
इसका अर्थ है कि प्रेम से संघ में जब संवाद होता है तो अनेक सोई हुई संभावनाएं चमत्कारिक रूप से सत्य में बदलकर हैरतअंगेज़ नतीजे पैदा कर सकती हैं |
इसका पूरा विज्ञान है और किसी जादू टोने और अन्धविश्वास से इसका कोई वास्ता मतलब नहीं है |

